महाराणा प्रताप भाग-12

महाराणा प्रताप भाग-12

“कुंवर यागमल प्रायश्चित कर रहे है, सो ठीक है।” चंदावत कृष्ण सिंह बोले—“पर इस बात को वे भी स्वीकार करेंगे, कि वे प्रजा और सामंतों का विश्वास लेकर नहीं चल सकते; क्योंकि अपने छोटे-से शासन – काल में उन्होंने उदयपुर जैसे महत्वपूर्ण स्थान को भी खो दिया है। चित्तौडगढ़ पर सागर सिंह का अधिकार और अत्याचार न होता। मात्रभूमि यागमल को उचित स्थान और सम्मान देगी, पर उनका राणा बना रहना स्वीकार न करेगी।” फिर वे प्रताप की ओर मुड़े–“कुंवर प्रतापसिंह, आगे बढिए। बाप्पा रावल का यह सिंहासन हम्मीर और सांगा के जौहर फिर से देखना चाहता है। हम सबका अनुरोध है, कुंवर!”

प्रताप ने विवशता के भाव से सबकी ओर देखा।

“भैया !” यागमल ने आगे बढ़कर प्रताप का हाथ थामते हुए कहा– “माँ के अपराध का प्रायश्चित करने की आज्ञा क्या आप मुझे न देंगे ? सुर्यवंश में एक बार पहले भी इस प्रकार का अपराध हो चूका है। माँ के अपराध का प्रायश्चित पहले भी एक राजकुमार भरत कर चूका है। क्या-क्या आज भी भरत को अपने बड़े भाई राम के पास से निराश ही लौटना पड़ेगा ? नहीं, कह दो भैया, आज भरत को निराश नहीं लौटना पड़ेगा; क्योंकि आज भरत राम के साथ रहकर स्वतंत्रता रूपी सीता के सम्मान की रक्षा करना चाहता है।”



“ओह यागमल भैया !” प्रताप के नयन छलछला आये। प्रताप ने आगे बढ़कर यागमल को गले से लगा लिया।

सभी उपस्थित लोगों की आँखों में स्नेह के आंसू आ गए।

तभी राजगुरु ने प्रवेश किया।

“राजगुरु, प्रणाम !” सभी ने उनका अभिवादन किया।

“कल्याण हो !” राजगुरु ने हाथ उठाकर सबको आशीर्वाद दिया। फिर प्रताप के समीप जाकर बोले–“सिसोदिया वंश के सूर्य प्रताप की आँखों में आंसू ! आश्चर्य !” फिर वे महामंत्री की ओर मुड़कर बोले—“राजतिलक की सामग्री मंगवाइये, महामंत्री जी ! प्रताप ने आज तक मेरा कहा नहीं टाला।”

तत्काल एक सेवक जाकर फूल, चावल, धुप, दीप और चन्दन आदि ले आया। राजगुरु ने प्रताप के मस्तक पर तिलक लगाया और प्रताप का हाथ पकड़कर उन्हें सिंहासन पर बैठा दिया। उसके बाद जैसे चिल्लाकर कहा—

“महाराणा प्रताप—”

“अमर रहे !” सभी उपस्थित चिल्ला उठे।

“महाराणा प्रताप की —”

“जय !”

और कई क्षणों तक जय-जयकार गूंजता रहा।

प्रताप ने उठकर पहले राजगुरु, फिर महामंत्री, उसके बाद चंदावत कृष्ण सिंह आदि का अभिवादन करते हुए कहा–

“आप लोगों ने मुझे जो उत्तरदायित्व सौंपा है, आप लोगों के सहयोग से उसे निभाने का प्रण लेता हू।” इतना कहकर वे मौन हो गए। उनका हाथ अपनी कमल में लटकी तलवार पर अपने आप चला गया। सहसा तलवार खींच, कुछ जोश के साथ प्रताप ने कहना शुरू किया–“माँ भवानी और भगवान् एकलिंग (शंकर) की सौगंध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ , कि जब तक देश का चप्पा-चप्पा भूमि को इन विदेशियों से स्वतंत्र नहीं करा लूँगा, चैन से नहीं बैठूँगा। जब तक मेवाड़ कि पुण्यभूमि पर एक भी स्वतंत्रता का शत्रु रहेगा, तब तक झोपडी में रहूँगा, जमीं पर सोऊंगा, पत्तलों में रुखा-सुखा खाना खाऊंगा, किसी भी प्रकार का राजसी सुख नहीं भोगूँगा, सोने-चांदी के बर्तन और आरामदायक बिस्तर की तरफ कभी आँख उठाकर भी नहीं देखूंगा ! बोलिए, क्या आप सब लोग मेरे साथ कष्ट और संघर्ष का जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार है ?”

“हम सब अपने महाराणा के एक इशारे पर अपना तन-मन, सब कुछ न्योछावर कर देंगे !” चारों तरफ से सुनाई दिया।

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