महाराणा प्रताप भाग-27

महाराणा प्रताप भाग-27

Maharana Pratap

Maharana Pratap and Raja Todarmal Discussion

“क्या?” महाराणा ने बीच में ही बात काटते हुए तनिक जोश के साथ कहा – “मैं आपके साथ आगरा चलूँ, ताकि आपके सम्राट के सामने मस्तक झुककर भीख माँग सकूँ, कि मेवाड़ हमारा घर है, हमारी मातृभूमि है, आप उसे हमें भीख में या उपहार में दे दीजिये ! हम आपको अपना शासक मानकर वार्षिक खिराज (नज़राना या भेंट) अर्पित करते रहेंगे – यही न ?”

“समय पर बड़े और समर्थ का शासन मानने में ही बुद्धिमानी है, महाराणा !” राजा टोडरमल ने कहा – “पहले तो आपको यह सब कुछ भी न कहना पड़ेगा, मैं सब कुछ संभाल लूंगा। फिर यदि दो-चार नम्रता के शब्द कहने भी पड़ जायें, तो क्या बिगड़ जाता है ?”

“राजा साहब !” प्रताप का माथा तमतमाने लगा – “आप हमारे मान्य अतिथि हैं। अब क्या कहूं ! याद रखिये, प्रताप के जीते-जी ऐसा कभी नहीं हो सकता। मित्रता समानता के आधार पर होती है। पर आपका आधार यह नहीं है। अतः साफ़-साफ़ हूँ लीजिये ! आपके सम्राट पूरे मेवाड़ को खाली करके ही हमारी मित्रता के अधिकारी हो सकते है, अपने बल के प्रदर्शन से हरगिज़ नहीं !”

कई क्षणों तक सन्नाटा छाया रहा।



“आपकी इच्छा, महाराणा !” कुछ देर बाद राजा टोडरमल ने फिर कहा – “एक बात और कहनी थी। आप सूरत-गुजरात के शासक राव चन्द्रसेन के साथ मिलकर समुद्री बन्दरगाहों में होने वाले व्यापार के यातायात में विघ्न डाल रहे हैं। इसमें महाबली सम्राट अकबर के राजस्व और चुंगी में बड़ा घाटा पड़ रहा है। यह तो बंद हो सकता है ना ! वह प्रदेश तो मेवाड़ नहीं है !”

” बड़े भोले हैं आप,राजा साहब !” प्रताप ने हँसते हुए कहा – “आप, राजा भगवानदास या अन्य राजा सम्राट अकबर तो नहीं हैं न, फिर क्यों उनके पक्ष का समर्थन कर रहे हैं ?” महाराणा ने तनिक रूककर कहा – “हमारी नीतियों का निर्धारण हमें ही करना है, आप लोग अपने ढंग से काम कीजिये। कुछ पहले राजा भगवानदास भी इसी प्रकार की योजनायें लेकर आये थे। पर मुझे समझ नहीं आता आप लोग अपने सम्राट को जाकर क्यों नहीं समझाने का प्रयत्न करते कि सभी को स्वतंत्रतापूर्वक रहने का अधिकार वे क्यों नहीं मानना चाहते !”

“महाराणा !” राजा टोडरमल ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा – “मुझे खेद है ! मैं आपको किसी भी बात पर राज़ी न कर सका ! आगरा या दिल्ली में रहने वाले हम सब राजपूत और क्षत्रिय राजा आपके साहस की प्रशंसा किया करते हैं। पर अथाह समुद्र की गर्जना के सामने टिटहरी के शोर का महत्व ही क्या है ! समय के साथ चलना ही बुद्धिमानी है।”

प्रताप मौन सुनते रहे।

“मैंने तो समय की पुकार ही आप तक पहुंचाई है।” राजा टोडरमल ने फिर कहा – “हम आपका बहुत सम्मान करते हैं, कभी-कभी आपके महान व्यक्तित्व से ईर्ष्या भी होने लगती है, पर लाचार हैं, महाराणा !”

और महाराणा का अभिवादन कर वे चल दिए।



“चंदावत कृष्णसिंहजी !” महाराणा ने पुकारते हुऐ कहा – “राजा साहब को मेवाड़ की सीमाओं से बाहर तक सुरक्षित पहुँचाने की व्यवस्था कर दें, क्योंकि आजकल अकबर के किसी भी व्यक्ति का इधर से गुजरना सुरक्षित नहीं।”

राजा टोडरमल ने रुककर यह सुना, फिर चल दिये।

“जो आज्ञा, महाराणा !” चंदावत कृष्णसिंह ने कहा। फिर उन्होंने सैनिकों को कुछ संकेत किया। वे राजा टोडरमल के साथ चलने लगे।

महाराणा वापस अपनी झोंपड़ी में आ गये।

इसी प्रकार दिन बीतने लगे।

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